-दीपक रंजन दास
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में 1700 विद्यार्थियों को किसी न किसी विषय में शून्य मिला है. शून्य प्राप्त करने वालों में बीए, बीकॉम, बीएससी, बीसीए, एमए – इंग्लिश, हिन्दी, राजनीति शास्त्र, संस्कृत, समाज शास्त्र, इतिहास, एमकॉम, आदि सभी विषयों के विषयों के विद्यार्थी शामिल हैं। ऑडिट के पर्चे में विद्यार्थी ने लिखा – लिखने की इच्छा नहीं है, ब्रेकअप हो गया है, और फिर ब्रेकअप की पूरी कहानी लिख दी। बीकॉम के एक छात्र ने स्थानीय राजनीति पर लिखा कि उसका पार्षद के घर आना जाना है। बीकाम के ही एक अन्य छात्र ने लिखा कि अगर पास कर दिया गया तो मूल्यांकनकर्ता का कल्याण होगा, नहीं किया तो परिणाम भुगतने होंगे। राजनीति शास्त्र के एक विद्यार्थी ने एक गीत लिखा – वो खिड़की जो बंद रहती है।।। स्नातक के एक अन्य परीक्षार्थी ने लिखा – महात्मा गांधी का जन्म 1857 में हुआ था। बॉटनी के पेपर में चाय पर एक सवाल का जवाब आया – चाय तीन तरह की होती है- ग्रीन टी, ब्लैक टी और दूध वाली चाय। इन्हीं विद्यार्थियों ने कोरोना काल में हुई ऑनलाइन परीक्षाओं में 90-95 प्रतिशत तक अंक हासिल किये थे। अब उनकी हालत देखकर सबने सिर पकड़ लिया है। बार-बार यह कहा जा रहा है कि ऑनलाइन परीक्षाओं में विद्यार्थियों ने पुस्तक खोलकर परीक्षा दी जिसके कारण उनके अच्छे नंबर आए। उनकी पढऩे और याद करने की आदत चली गई। पर यह केवल आधा सच है। यदि ऑनलाइन परीक्षा घटिया ढंग से ली गई है तो इसकी जिम्मेदारी परीक्षार्थियों पर नहीं थोपी जा सकती। दुनिया भर में ऑनलाइन डिग्रियों का चलन बढ़ रहा है। बड़े बड़े नामचीन विश्वविद्यालय ऑनलाइन कोर्स डिजाइन कर रहे हैं। बाकायदा पढ़ाई हो रही है। प्रोजेक्ट वर्क हो रहा है। डिग्री भी मिल रही है और नौकरी भी। छत्तीसगढ़ के तमाम कालेजों को कोरोना काल के बाद एक नया टारगेट दे दिया गया – किसी भी कीमत पर नैक मूल्यांकन कराने का। अध्यापकों-प्राध्यापकों का पूरा अमला दिन रात इसी में व्यस्त रहा। जिन कालेजों के बच्चों को शून्य मिले हैं, उनके पास भी नैक के अच्छे ग्रेड हैं। कोरोना काल को सभी ने झेला था – पर सबसे ज्यादा मार उनपर पड़ी तो कोरोना काल में डिग्री लेकर निकले। तब नौकरी मिली नहीं और अब उनकी डिग्रियां बासी हो गई हैं। ऑनलाइन परीक्षाओं का आयोजन मजबूरी के तहत किया गया था और इसका तरीका भी मजबूरी वाला ही था। प्रश्न पत्र मिलेगा। घर से उत्तर लिखकर लाओ। चाहो तो चार पांच विद्यार्थी साथ बैठकर इन्हें हल करो। इसके बाद उसे कालेज पहुंचाओ जहां से इसे अच्छी तरह सील कर विश्वविद्यालय को पहुंचाया जाएगा। मजे की बात यह कि प्रश्न पत्रों का पैटर्न तक नहीं बदला गया। इसके बाद ‘अछूतÓ उत्तर पुस्तिकाओं को जांचने की बारी आई। कितनों ने बंडल खोले, इसका भी कोई हिसाब किताब नहीं है। कॉलेज खुलने के बाद भी पढ़ाई हाशिए पर रही। फिर दोष सिर्फ छात्रों का कैसे?