भिलाई। विधानसभा चुनाव नजदीक है। ऐसे में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को एक बार फिर कार्यकर्ताओं की याद हो आई है। 2018 में चुनाव के वक्त इन कार्यकर्ताओं को सिर-आंखों पर बिठाया गया था, लेकिन चुनाव जीतने के बाद सत्ता-सुख भोगने में ये जनप्रतिनिधि इतने व्यस्त हो गए कि कार्यकर्ताओं को ही बिसरा बैठे। अब जबकि फिर से चुनावी कवायद शुरू हो चुकी है, एक बार फिर उन कार्यकर्ताओं की पूछपरख बढऩे लगी है और जनप्रतिनिधि इन कार्यकर्ताओं के साथ मिठलबरा बन झंगलु-मंगलु सा व्यवहार कर रहे हैं, मानों वे बचपन के साथी हों। खासकर कांग्रेस के कार्यकर्ता इन वाकयों को चटखारे लेकर सुना रहे हैं।
2018 का चुनाव काफी कश्मकश से भरा था। लगातार तीन बार से भाजपा सत्ता में थी तो कांग्रेस के प्रादेशिक नेता मिल-जुलकर रणनीति बना रहे हैं। इस दौरान प्रत्याशी चयन में बेहद सावधानी बरतते हुए चुन-चुनकर प्रत्याशी उतारे गए। कई प्रत्याशी तो ऐसे थे, जिन्हें अंत में ही पता चल पाया कि उन्हें चुनाव लडऩा है। ऐसे में स्थानीय कार्यकर्ताओं को साधना और उनसे चुनाव में सक्रियता से काम लेना बड़ी चुनौती थी। कांग्रेस पार्टी क्योंकि एकजुट होकर चुनाव लड़ रही थी, इसलिए कार्यकर्ताओं ने भी बढ़-चढ़कर भागीदारी की ताकि सत्ता में आने या प्रत्याशी के जीतने का कुछ लाभ उन्हें भी मिल पाए। लेकिन चुनाव जीतने के बाद इन नेताओं ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जिन कार्यकर्ताओं ने चुनाव जितवाने में ऐड़ी-चोटी एक की थी, वे विधायक या मंत्री के बंगलों के बाहर भीड़ बनकर रह गए। जिस जनप्रतिनिधि को जितवाया, उनके पास इन कार्यकर्ताओं के लिए वक्त नहीं था। ऐसे में वे कार्यकर्ता जो स्वयं को मंत्रीजी या विधायक का करीबी बताने में लगे थे, अचानक कन्नी काटकर दूर होते चले गए। सत्ता-सुख भोगने में व्यस्त नेताजी के पास इतनी फुरसत नहीं थी कि वे इन कार्यकर्ताओं के साथ सामंजस्य बिठा पाते या उन्हें अपने साथ रख पाते।
कहते हैं कि वक्त सबका आता है। 2018 का अध्याय अब खत्म होने को है और जो नेताजी सत्ता-सुख भोगने में व्यस्त थे, अब उन्हें फिर से उन कार्यकर्ताओं की याद सताने लगी है। लेकिन इसके पीछे कई तरह की वजहें हैं। पहली वजह तो यही है कि सर्वे की रिपोर्टें नेताजी के खिलाफ जा रही है। ऐसे में जाहिर तौर पर जमीनी कार्यकर्ताओं के समर्पण की दरकार है। दूसरा यदि सर्वे की रिपोर्ट खराब नहीं है तब भी कार्यकर्ताओं की जरूरत तो है ही। इसके अलावा जय-जयकार कर माहौल बनाने के लिए भी इन्हीं कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होगी। …तो कुल मिलाकर अब नेताजी को उन कार्यकर्ताओं की याद सता रही है, जिसे पूरे 5 साल तक उपेक्षित रखा गया था।

फोन कर पूछ रहे हालचाल
बंगले में हाजिरी लगाने वाले कार्यकर्ताओं से सीधे मुंह बात नहीं करने वाले नेताजी अब उन्हीं कार्यकर्ताओं को फोन लगाकर हालचाल पूछ रहे हैं। उनकी पारिवारिक स्थिति से लेकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तक की खबर ले रहे हैं। कार्यकर्ताओं को यह अहसास कराया जा रहा है कि विधायकजी या मंत्रीजी उनके फिक्रमंद हैं। वो तो कामकाज में व्यस्तता के चलते वक्त नहीं दे पा रहे थे, अन्यथा तो वे कार्यकर्ताओं को सदैव याद करते हैं। बातचीत के दौरान नेताजी यह इशारा करने से भी नहीं चूकते कि कार्यकर्ता को अपने क्षेत्र में भिडऩा है, तभी रिजल्ट अपने पक्ष में आ पाएगा।
हमसे न हो पाएगा नेताजी…
एक कार्यकर्ता के पास जब नेताजी का फोन आया तो उन्होंने साफ कह दिया,- हमसे न हो पाएगा नेताजी….। दरअसल, जिले के एक मंत्री को सत्ताधीशों ने निजी व सरकारी सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर क्षेत्र बदलने को कहा था। मंत्रीजी पहले ही क्षेत्र बदलकर यहां आए थे। अब एक बार फिर क्षेत्र बदलकर चुनाव लडऩे का असर सीधे छवि पर पडऩे का अंदेशा है। ऐसे में सुख-भोगू मंत्रीजी कार्यकर्ताओं और अपने समाज के लोगों से फोन कर राय-मशविरा कर रहे हैं। सर्वे की रिपोर्ट कह रही है कि क्षेत्र में उनकी हालत नाजुक है। अब तो कार्यकर्ताओं ने भी दूरी बना ली है।
शब्दों में आ गई मिठास
टिकट के दावेदार कई विधायक व मंत्रियों के व्यवहार में अचानक परिवर्तन दिखने लगा है। इन नेताओं के शब्दों में बढ़ी हुई शुगर की मात्रा सहजता से महसूस की जा सकती है। कार्यकर्ताओं को चाश्नी डूबे शब्द घोलकर पिलाए जा रहे हैं। जिन नेताओं के चेहरे पर कार्यकर्ताओं को देखते ही शिकन आ जाती थे, अब उन कार्यकर्ताओं के कंधे पर हाथ रखकर या मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ मेलजोल किया जा रहा है। बंगले पर मिलने को भी बुलाया जा रहा है और कुछु-काहीं जरूरत भी पूछी जा रही है। ऐसे व्यवहार से अलग कार्यकर्ता अपने-अपने स्तर पर मजे लेने में व्यस्त है।




