-दीपक रंजन दास
भारत ही क्यों, किसी भी देश में एक दूसरे के धुर विरोधी दो वर्ग हमेशा रहे हैं. एक वह जिसके पास सबकुछ है और दूसरा वह जिसके पास अपने जीवन के अलावा कुछ भी नहीं है. समाजवाद इन सभी को समान अधिकार देने की बातें करता है जबकि अधिनायकवाद का मानना रहा है कि कुछ लोग हमेशा के लिए नेतृत्व के लिए ही पैदा होते रहे हैं. नेतृत्व करना उनका स्वाभाविक अधिकार है. एक ऐसे ही संपन्न वर्ग के धर्मगुरू ने एक बार भिलाई की अपनी सभा में कहा था कि आदिवासियों को या तो मरना होगा या फिर अपनी जमीन छोड़कर जाना होगा. उन्होंने इसकी वजह भी बताई थी. उन्होंने कहा था कि आदिवासी जिस भूभाग पर काबिज हैं उसमें न केवल धरती के ऊपर बेशकीमती इमारती लकड़ियों के जंगल हैं बल्कि इनके गर्भ में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक संपदा गड़ी हुई हैं. जब समाज को इसकी जरूरत पड़ेगी तो वर्ग संघर्ष होगा ही और आदिवासियों को अपनी जमीन छोड़नी होगी. यह मुद्दा एक बार फिर छत्तीसगढ़ में मुखर हो गया है. भाजपा के कद्दावर आदिवासी नेता नंदकुमार साय ने मजदूर दिवस पर कांग्रेस का दामन थाम लिया. उन्होंने कहा कि भाजपा में आदिवासी नेताओं की कोई कद्र नहीं है. उनके साथ छल किया जाता है, उनके खिलाफ षड़यंत्र रचे जाते हैं. इसके साथ ही दोनों पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ वाकयुद्ध में जुट गई हैं. कांग्रेस ने जहां भाजपा पर आदिवासियों के साथ छल करने का आरोप लगाया वहीं भाजपा ने कहा कि कांग्रेस ने हमेशा आदिवासियों का सिर्फ उपयोग किया है और काम निकल जाने के बाद उन्हें फेंक दिया है. राजा तो राजा ही होता है चाहे वह किसी भी दल का हो. वह जनता का अपनी जरूरत के हिसाब से उपयोग करता है. स्वयं भाजपा भी इसका अपवाद नहीं है. पर यहां सवाल इस बात का है कि साय ने आखिर भाजपा का परित्याग क्यों किया. छत्तीसगढ़ में अपनी खोई जमीन तलाशने के लिए क्या भाजपा कोई ऐसा कदम उठाने जा रही है जिससे आदिवासी वर्ग में भय का संचार हो रहा है. कुछ दिन पहले ही केन्द्रीय गृहमंत्री बस्तर प्रवास पर थे. उन्होंने दो टूक कहा कि जल्द ही नक्सलवाद का खात्मा कर दिया जाएगा. इसके साथ ही भाजपा की एक नेता ने भी कह दिया कि गृहमंत्री जो कहते हैं, वो करते भी हैं. जनता देख रही है कि चुनाव आते ही नक्सल हिंसा में तेजी आने लगी है. एक तरफ संयुक्त बल लगातार ईनामी नक्सलियों को धराशायी कर रही है तो दूसरी तरफ नक्सली भी लगातार हमला कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश कर रहे हैं. तो क्या बस्तर एक बार फिर अखाड़ा बनने जा रहा है. यदि ऐसा हुआ तो छत्तीसगढ़ का विकास अवरुद्ध हो सकता है. ऐसे में पार्टीगत बतोलेबाजी छोड़कर सभी जिम्मेदारों को गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा कि प्रदेश की राजनीति किस दिशा में बढ़ रही है.