-दीपक रंजन दास
कवर्धा जिला मुख्यालय से लगभग 22 किलोमीटर दूर मांदा घाट में लाखों रुपए की सरकारी दवाइयां लावारिस हालत में मिलीं. इनमें ब्रोमेक्सिन हैड्रोक्लोराइड, पैरासिटामाल, प्रोमेथजीन, मल्टी विटामिन सिरप, एरीथ्रोमाइसीन, पैरासिटामॉल के टेबलेट्स हैं. खांसी की म्यूकोलिटिक सीरप और ब्रोमेक्सिन हैड्रोक्लोराइड जैसी दवाओं को भी फेंक दिया गया है. इनमें से कुछ की अभी एक्सपायरी डेट आई नहीं है. इधर बोड़ला बीएमओ डॉ. योगेश साहू कुछ भी कहने से बच रहे हैं. क्या ही कहेंगे, उनके पास कहने को है ही क्या? सारा देश जानता है कि इक्का दुक्का राज्यों को छोड़ दें तो सरकारी अस्पताल भैंस बांधने के ही काम आते हैं. बीवी बच्चा अमीर का हो या गरीब का, वह उसका अच्छा इलाज कराना चाहता है. ऐसे अस्पताल में कौन जाएगा जहां डाक्टर के आने जाने का ठिकाना नहीं, नर्सें गुस्से में रहती हैं. संडास में नीम अंधेरा छाया रहता है. फर्श पर पैर रखो तो तलवे काले हो जाते हैं. सरकारी दवाइयां लिखने के बाद डाक्टर मरीज से कहते हैं कि अगर जल्दी ठीक होना हो तो ये दवाइयां बाहर से ले लो. आखिर कौन सर्दी खांसी जैसी मुसीबत को गले से लगाए रहना चाहेगा? बात 100-200 रुपए की हो तो वह पास की दवा दुकान से खरीद ही लेता है. डाक्टर को भी उसका कमीशन मिल जाता है. यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसकी सबको खबर है. पर लोग इसे च्वाइस का मामला बताते हैं. दरअसल, देश का असली गुनहगार यहां का दवा उद्योग है. यह एक इतनी बड़ी लॉबी है जिसपर हाथ डालने से स्वयं प्रधानमंत्री तक घबराते हैं. ईडी-पीडी, सीबीआई-आईटी-डीटी भी इसके आगे पानी भरते हैं. देश का दवा उद्योग आकार के मामले में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा उद्योग है. दवा निर्यात करने के मामले में भी यह दुनिया के टॉप टेन देशो में शामिल है. शराब के बाद यही एक ऐसा उद्योग है जिसमें चार आने का माल 400 रुपए में बेचने की छूट है. निजी कंपनियां रोज दवाइयों को मिला-मिला कर नए मालीक्यूल तैयार कर रही हैं और रिसर्च के बहाने उसकी अनाप शनाप कीमत रख रही हैं. डाक्टरों को मोटा कमीशन देकर इन दवाओं को बाजार में खपाया जाता है. कुछ दवाइयों का तो क्लिनिकल ट्रायल तक नहीं होता. अस्पतालों में अगर इलाज का बिल लाखों में पहुंचता है तो इसका श्रेय भी दवाइयों की आसमान छूती कीमतों को जाना चाहिए. जिनका वास्ता अस्पतालों से पड़ चुका है, वो जानते हैं कि एक एक इंजेक्शन 3000 रुपए से लेकर 20-30 हजार रुपए तक की आती है. दवा उद्योगों की चोरी दिखाई नहीं देती. इसलिए अस्पताल चोर ठहराए जाते हैं. रोगी के परिजन अस्पतालों में तोड़फोड़ मचाते हैं. सरकार लाख योजनाएं बना ले, जब तक दवा उद्योग पर उसका काबू नहीं होगा, इलाज सस्ता नहीं हो सकता. 365 दिन में 7-8 सौ जागरूकता दिवस मनाये जाते हैं. पर दवाइयों पर से कुहासा छांटने की कहीं कोई कोशिश नहीं होती.
गुस्ताखी माफ़: चार माह पहले ही फेंक दी मौसमी बीमारी की सरकारी दवाइयां
