-दीपक रंजन दास
बेटियों को लेकर हम कितने संवेनशील हैं, इसका ताजा उदाहरण नारायणपुर के ओरछा ब्लाक में सामने आया है. यहां दो आश्रमों की चार छात्राएं लापता हो गईं. आश्रम अधीक्षिका ने इसकी पुलिस में रिपोर्ट नहीं की जबकि ऐसे मामलों में टाइम इलिमेंट का बहुत ज्यादा महत्व होता है. नाबालिगों के ऐसे मामलों में पुलिस को अपहरण का मामला दर्ज कर तत्काल कार्रवाई के निर्देश हैं. पर छात्रावास अधीक्षिका ऐसा कुछ भी नहीं करती. उसने केवल इतना किया कि आश्रम में छूट गए छात्रा के वस्त्र उसके मामा के घर पहुंचा दिये. यह मान लिया गया कि छात्राएं आश्रम से भाग कर घर लौट गई हैं. उन्होंने छात्राओं के घर पर होने की पुष्टि करना तक जरूरी नहीं समझा. छात्रा की माता ने जब आश्रम अधीक्षिका से पूछताछ की तो उन्होंने कहा दिया कि आपकी बेटी भाग गई है. साथ ही यह भी कहा कि वह पुलिस के पास न जाए. छात्रा अपने आप लौट आएगी. पर बच्ची की मां पुलिस के पास जा पहुंची. पुलिस तत्काल हरकत में आई. पूछताछ में सामने आया कि अबुझमाड़ ओरछा में संचालित एकलव्य आवासीय विद्यालय की एक और आदर्श कन्या आश्रम शाला की तीन छात्राएं 13 नवम्बर से लापता हैं. गहन पतासाजी में छात्राओं के तमिलनाडु में होने की भनक मिली. पुलिस की दो टीमें रवाना की गईं. छात्राओं को कुन्नूर में बरामद किया गया. दरअसल, अबूझमाड़ के इस इलाके का तमिलनाडु से गहरा संबंध है. मजदूर दलाल यहां के गरीब आदिवासियों को मजदूरी के लिए तमिलनाडू लेकर जाते हैं. इनमें बड़ी संख्या में नाबालिक भी शामिल होते हैं. इन्हें ईंट भट्ठों, कपड़ा मिलों और इतर उद्योगों में लगा दिया जाता है. कुछ समय पहले भी पुलिस ऐसे दर्जन भर बच्चों को वहां से बरामद करके वापस लाई थी. आदिवासी बच्चियों को जिस्मफरोशी के धंधे में धकेले जाने की भी खबरें समय-समय पर सामने आती रही हैं. सवाल यह उठता है कि आश्रम छात्रावास की ये छात्राएं बिना परिजनों की जानकारी में आए इन ठेकेदारों के चंगुल में कैसे फंसीं? सवाल यह भी है कि बच्चियां इतनी हड़बड़ी में क्यों थीं कि उनके कपड़े आश्रम में छूट गए? तो क्या इनका अपहरण किया गया था? इस मामले में आश्रम अधीक्षिका की क्या भूमिका है? क्या ये बच्चियां आश्रमों में लावारिसों की जीवन जी रही हैं? जिनको तनख्वाह ही इनकी देखभाल की दी जाती है, वो आखिर अपनी जिम्मेदारी से इस तरह से मुंह कैसे मोड़ सकते हैं? स्वयं पुलिस के पास नहीं जाना और परिजनों को भी रोकना, आखिर क्या दर्शाता है? क्या गरीब आदिवासी छात्राओं की स्थिति भेड़-बकरियों से भी बदतर है? ऐसे में मामलों में पुलिस भी तभी कोई मदद कर सकती है जब तत्काल इसकी सूचना उन्हें दी जाए. बिना कोई बात छिपाए पूरी जानकारी साझा की जाए. उम्मीद है आगे से अधीक्षिकाएं इस बात का ध्यान रखेंगी.