-दीपक रंजन दास
क्या पत्रकारिता समाधान दे सकती है? क्या विसंगतियों के प्रति उंगली उठा देने मात्र से पत्रकारिता की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है? पत्रकारिता को डिजिटल मीडिया से मिल रही चुनौतियों ने उसके स्वरूप को कितना नुकसान पहुंचाया है? क्या टीवी पर घंटों चलने वाली बहसें किसी के काम की होती हैं? इन सभी प्रश्नों के जवाब ढूंढने के लिए प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय द्वारा समाधान परक पत्रकारिता पर संवाद का आयोजन किया गया. अनेक विचार उभर कर सामने आए. किसी ने कहा कि प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में शामिल होकर पत्रकारिता अपने मायने खोने लगी है. बिना पुष्टि किए ही वह भी खबरों को परोसने की अंधी दौड़ में शामिल हो गई है. पत्रकारिता से जुड़े लोगों ने इसका प्रतिवाद भी किया. उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता आज भी सबसे ज्यादा है. हां! डिजिटल प्लैटफॉर्म पर भी अधिकांश अखबार आज मौजूद हैं पर वह माहौल के साथ चलने के लिए विवश है. जहां तक समाधान परक होने की बात है तो अखबारों में एक परिवर्तन यह आया है कि अब हम समस्याओं के साथ ही उससे जुड़े लोगों का पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं. पर लोगों पर इसका ज्यादा असर नहीं होता. तमाम विसंगतियों को अखबार वाले रिस्क लेकर उठाते हैं पर जनता उनके समर्थन में कहीं सामने नहीं आती. लोगों ने यह आशंका भी जताई कि जनता को समाधान की जरूरत ही नहीं है. एक मजेदार बात एक वरिष्ठ पत्रकार ने कही. उन्होंने कहा कि पहले हम कहते थे कि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करनी है तो टीवी पर समाचार देखो. अब हम कहते हैं कि टीवी से दूर ही रहो तो अच्छा है. समाचार चैनलों पर बेतुकी बहस और मनोरंजन चैनलों पर अपसंस्कृति का ही बोलबाला है. पर इस पूरी बहस का पटाक्षेप बहुत सकारात्मक रहा. अंतिम वक्ता मुख्य अतिथि ने कहा कि आज दुनिया अपनी समस्याओं के समाधान के लिए भारत की ओर देख रही है. वहां की जनता अपने यहां बसे भारतवंशियों को सिर आंखों पर बैठा रही है. इसलिए चुनाव हारने के बाद भी ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच जाते हैं. भारत समस्याओं से भागता नहीं है. हमारे यहां समस्याओं का अंबार है और हम उसका कोई न कोई हल ढूंढ ही लेते हैं. दरअसल, यही हमारी संस्कृति है. समस्याओं का समाधान ढूंढने के लिए भारत पुरातन काल से ही संवाद करता आया है. परिवार के बड़े बूढ़े, गांव के प्रमुख लोग, समाज के वरिष्ठजन हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं. हमने कभी एक आदमी के द्वारा सुझाया गया समाधान स्वीकार नहीं किया. इसलिए हमारे समाधानों में दम होता है. भारतीय पत्रकारिता ने भी करवट ली है और समाधान परक समाचारों पर मेहनत हो रही है. पर हमें याद रखना होगा कि पत्रकार भी उसी समाज से आ रहे हैं जहां से भ्रष्ट नेता, भ्रष्ट आईएएस, भ्रष्ट आईपीएस पैदा हो रहे हैं. इसलिए इनसे ज्यादा उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.