-दीपक रंजन दास
छत्तीसगढ़ आज पूरे 22 वर्ष का हो गया. इस अवसर पर अंतरराष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन किया गया है. देश विदेश के आदिवासी छत्तीसगढ़ की पावन धरा पर तीन दिनों तक अपनी कला का प्रदर्शन करेंगे. इनमें से कुछ दलों ने यहां उतरते ही एयरपोर्ट पर “छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा” का नारा लगाया है. आदिवासी नृत्य हम सभी के जीवन का हिस्सा रहे हैं. स्कूल कालेज के दिनों में वार्षिकोत्सव के अवसर पर आदिवासी नृत्य भी प्रस्तुत किये जाते थे. हालांकि दर्शकों को अंत तक बांधे रखने के लिए भांगड़ा की प्रस्तुति अंत में की जाती थी. लोग इसका बेसब्री से इंतजार भी करते थे. आदिवासी नृत्य की तैयारी थोड़ी कठिन होती थी. हर कोई इसके लिए तैयार नहीं होता था. चेहरे पर कालिख पोतकर, सिर पर रंग बिरंगे पंख और कमर पर पत्तों की कोपिन लपेटकर जब हम भाला लेकर डांस करते थे तो घर वाले भी ग्रुप में पहचानने की सिर्फ कोशिश ही कर पाते थे. हिन्दी फिल्मों में भी आदिवासी नृत्यों को खूब शामिल किया गया. इसमें देश विदेश की आदिवासी बोलियों और गीत का इस्तेमाल किया जाता था. आदिवासी समाज के साथ हमारा सम्पर्क और हमारी जरूरत बस इतनी ही थी. देश में स्वतंत्रता का बिगुल सबसे पहले फूंकने वाले आदिवासियों को हमने इतिहास में खास तवज्जो नहीं दी. समय के साथ जब लोग जरूरत से ज्यादा खबड़े हो गए तो चापड़ा चटनी से लेकर बोड़ा और करील को भी अपनी थाली में शामिल कर लिया. बावजूद इसके आदिवासी जीवन के बारे में हम केवल इतना ही जानते थे कि ये दिन भर जंगलों में भटकते हैं, सल्फी-ताड़ी-महुआ पीते हैं, रात को आदिवासी वाद्ययंत्रों पर नाचते गाते हैं और फिर चुपचाप सो जाते हैं. जिस चेंद्रू मंडावी को अंग्रेज ढूंढकर चले गए, उसे पहचान देने में भी हमें 50 साल लग गए. पर आदिवासी जीवन का मतलब केवल इतना ही नहीं है. बाद के वर्षों में हमने जाना कि सल्फी का एक पेड़ आदिवासी के लिए घर के कमाऊ पूत जितना महत्वपूर्ण है. सल्फी बेचकर वह चार पैसे नगद घर ला पाता है. वनोपज संग्रहों को तो शहरी लोग लगभग लूटकर ही ले जाते रहे हैं. पर अब छत्तीसगढ़ बदल रहा है. वनोपजों का अच्छा मूल्य और नगद खरीदी की व्यवस्था ने वनवासियों को किसानों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है. इसके साथ ही गांवों की तरफ लौटती छत्तीसगढ़ सरकार पर्यावरण और प्रकृति के साथ बेहतर सामंजस्य बैठाने की कोशिश कर रही है. पर कुछ घटनाएं आज भी दिल को कचोटती हैं. जामड़ी पाट में आदिवासियों की आस्था पर हमले किये गए और हम सब खामोश बैठे रहे. पेसा कानून लागू होने के बाद भी आदिवासियों का विस्थापन जारी है. मध्यभारत का फेफड़ा कहे जाने वाले हसदेव अरण्य के जंगलों का विनाश हो रहा है, आदिवासियों और वन्यप्राणियों का विस्थापन किया जा रहा है. कई स्थानों पर आदिवासी और पुलिस प्रशासन आमने सामने हैं. दोनों एक दूसरे को संदेह की नजर से देखते हैं. इस संघर्ष में हम यह भूल जाते हैं कि आदिवासी उस प्रकृति को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसकी जरूरत हम सबको है.