सौरभ शर्मा
गांधीवादी विचारक स्व. अनुपम मिश्र की स्मृति में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा वाटर रिचार्जिंग में अच्छा कार्य करने पर सम्मानित करने का निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा स्वर्गीय मिश्र को यह सच्ची श्रद्धांजलि है। अपनी किताब ”आज भी खरे हैं तालाब” के माध्यम से मिश्र जी ने देश भर के साथ ही छत्तीसगढ़ में तालाबों की सुंदर परंपरा का सुंदर आख्यान प्रस्तुत किया है। इससे हमारे पूर्वजों की दूरदृष्टि तथा परंपरा के प्रति उनके गहरे सम्मान की स्मृतियां उभर आती हैं।
छत्तीसगढ़ में छह कोरी छह आगर के तालाबों की परंपरा रही है अर्थात 126 तालाब। श्री मिश्र ने अपनी किताब में आरंग, डीपाडीह, मल्हार आदि के तालाबों का जिक्र किया है जहां अब भी तालाब अक्षुण्ण हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निर्देश के बाद पूरे प्रदेश में इन तालाबों को सहेजने का कार्य किया जा रहा है। सरोवरों की नगरी कहे जाने वाले धमधा में तालाबों से अतिक्रमण हटाये जा रहे हैं। पूरे प्रदेश में सरोवरों को निखारा जा रहा है।
सरोवरों को बचाने और सहेजने की यह पहल हमारी परंपरा का हिस्सा रही है। अनुपम मिश्र अपनी किताब में लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ में ग्यारह पूर्णिमा तालाब खोदने श्रमदान कार्य के लिए हैं लेकिन पौष की पूर्णिमा इसे सहेजने के लिए दान करने का। छेरछेरा के दिन धान का दान लिया जाता था और इसे तालाबों तथा सार्वजनिक स्थलों को सहेजने के लिए उपयोग किया जाता था।
तालाबों के ब्याह की परंपरा भी यहां थी और तालाबों में पानी भरे रहने की मंगल कामना के गीत भोजली गीत में हैं। एक जगह जिक्र आया है कि इतना पानी तालाब में हो कि भोजली विसर्जित हो पाए। छत्तीसगढ़ का रामनामी संप्रदाय तालाब निर्माता के रूप में प्रसिद्ध रहा। इन्होंने पूरे प्रदेश में घूमघूमकर तालाब बनवाये। परंपरा में इन तालाबों का सुंदर जिक्र है।
शुभ कार्य के लिए उचित तिथि और नक्षत्र देखी जाती है। तालाबों के निर्माण के लिए भी इसका विधान था क्योंकि तालाब का निर्माण बहुत ही तकनीकी काम था जिसके लिए अच्छे सिविल इंजीनियर की दक्षता लगती थी। उदाहरण के लिए भोपाल में भोज ताल को देखें। इस सागर जैसे तालाब को बांधने के लिए मंडीद्वीप में विशेष लखेरा बनाया गया ताकि तालाब में उठने वाली विशाल लहरें तटबंध को क्षति न पहुंचाये। ऐसे लखेरा हर बड़े तालाब में हैं। रायपुर के बूढ़ा तालाब अथवा विवेकानंद सरोवर को देखें तो इसका लखेरा अब गार्डन के रूप में विकसित हो गया है। अनुपम मिश्र ने लिखा है कि तालाबों को स्वच्छ बनाये रखने इनमें खास तरह की वनस्पति लगाई जाती थी। उन्होंने लिखा कि इस किताब को लिखे जाने के पचास बरस पहले रायपुर में एक तालाब में सोने का नथ पहनाकर कछुये छोड़े गये ताकि पानी शुद्ध रह सके।
रायपुर के महंत घासीदास संग्रहालय में किरारी काष्ठ स्तंभ रखा है। आजादी के कुछ बरस पहले जब किरारी का हीराबंध तालाब पूरी तरह सूख गया तो तालाब के बीचों- बीच लकड़ी का यह स्तंभ उभर कर सामने आया। प्राकृत भाषा में लिखे इस अभिलेख को प्रख्यात इतिहासकार लोचन प्रसाद पांडे ने पढ़ा। जब यह तालाब बना होगा तब इसके लोकार्पण के मौके पर क्षेत्र का सातवाहन प्रशासनिक अमला आया था और यह लगभग दूसरी या तीसरी सदी में बनाया गया था। इस तरह से इस तालाब के माध्यम से प्रदेश का इतिहास भी सामने आया। तालाब में जो काष्ठ स्तंभ लगाया गया था वो साल की लकड़ी का था। साल की लकड़ी के बारे में कहावत है कि ”हजार साल खड़ा, हजार साल पड़ा और हजार साल सड़ा”। छत्तीसगढ़ के प्राय: हर तालाब में बीचोंबीच यह काष्ठ स्तंभ नजर आते हैं।
तालाब के निर्माण के वक्त विशेष अनुष्ठान किये जाते थे। तालाब में अर्पित करने के लिए विद्यालय, मंदिर, घुड़साल आदि की मिट्टी लाई जाती थी। वरुण देवता की पूजा की जाती थी और प्रतीकात्मक रूप से सभी नदियों का जल डाला जाता था। जब प्रख्यात इतिहासकार अलबरूनी भारत आये तो उन्होंने तालाबों के निर्माण को पुण्य कार्य के रूप में बताया है। तालाब खुदवाना आरंभ करने का कार्य इतना महत्वपूर्ण होता था कि राजा-महाराजा भी इस पुण्य कार्य के लिए जुटते थे।
छत्तीसगढ़ में तालाब निर्माण की परंपरा कमजोर होने के साथ ही इससे जुड़ा तकनीकी ज्ञान भी लुप्त होने लगा है। तालाबों में आगर ऐसा बनाया जाता है जिससे गर्मी के वक्त भी सूर्य की उष्मा से तालाबों का पानी क्षरित न हो। संस्कृत साहित्य में सूरज को अंबु तस्कर कहा गया है अर्थात जल चुरा लेने वाला। तकनीकी दृष्टिकोण से बने आगर में पानी काफी हद तक सुरक्षित रहता था।
छत्तीसगढ़ में स्वर्गीय मिश्र की स्मृति में शुरू किया जाने वाला सम्मान हमारे तालाब बनाने वाले और उन्हें सहेजने वाले पूर्वजों के वंशजों को प्रोत्साहित करने अनुपम पहल है जिससे प्रदेश में जल संरक्षण की परंपरा को बढ़ावा मिलेगा।