-दीपक रंजन दास
कुछ लोगों के लिए आस्था-वास्था सब बेकार की बातें होतीं हैं. वे तो पूजा पंडाल भी जाते हैं तो उनकी नजर इसीपर लगी रहती है कि युवतियां और महिलाएं क्या-क्या पहनकर आई हैं. ऐसा करके वे संस्कृति को कितना नुकसान पहुंचा रही हैं. उनके कान पूजा करा रहे पुरोहित के उच्चारण की अशुद्धियां ढूंढने में लगी रहती हैं. इस चक्कर में उनकी अपनी पूजा धरी-की-धरी रह जाती है. ऐसे लोग सिर्फ अपनी टीआरपी के चक्कर में आस्था के सवाल उठाना चाहते हैं. यह तो भला हो फ्यूजन गरबा खेलने और देखने आए लोगों का कि उसकी तरफ देखने या उसपर ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं थी. नेहरू नगर कालीबाड़ी के पास चल रहे इस कार्यक्रम में उसने विघ्न डालने की काफी कोशिशें कीं पर सफल नहीं हो पाया. डीजे की आवाज से भी ऊंचा बोलने वाले होते होंगे, पर हमें ऐसा कोई आदमी अब तक मिला नहीं है. पर यह चीख रहा था. इस शख्स का दावा था कि उसने गर्भदीप के पास मुख्य अतिथि को जूता पहने देखा था. मुख्य अतिथि एक नामचीन क्लासिकल डांस गुरू हैं. जूता पहनकर दीप प्रज्ज्वलन करना तो दूर, शास्त्रीय नृत्य या संगीत से जुड़ा कोई भी शख्त बिना जूता उतारे या मंच को प्रणाम किए मंच पर जाता ही नहीं है. ऊपर से यहां तो गरबा के घेरे की भीतर जाने के लिए भी जूते उतारने की व्यवस्था थी. बहरहाल एक वरिष्ठ पत्रकार के हस्तक्षेप से बात आगे बढऩे से रह गई. पर शिकायती इसके बाद भी अपशब्द कहता हुआ घेरे की बल्ली पर झूलता रहा. दरअसल, कुछ लोगों का काम ही विघ्न पैदा करना या चूकें ढूंढना होता है. ऐसा वो दो कारणों से करते हैं. एक तो अपना ज्ञान बघारने के लिए और दूसरा लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए. ऐसे लोग ऊलजलूल सवाल पूछकर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं. जहां तक धर्म और संस्कृति की बात हैं तो उसका संरक्षण अवश्य होना चाहिए. पर इस बात का भी स्मरण रहे की धर्म या संस्कृति स्थूल पाषाण नहीं है. यह डायनामिक है. यह समय के साथ-साथ बदलता, परिष्कृत और पुष्ट होता चला जाता है. सदियों के इतिहास में ऐसे कई परिवर्तन हुए हैं जो लिखित में नहीं है, पर हम सभी उसे महसूस कर सकते हैं. जब इन सांस्कृतिक परम्पराओं की नींव पड़ी तो न माइक थे और न डीजे. ढोल मंजीरे के साथ ही जगराता, जसगीत होते थे. पर क्या आज कोई बिना साउंड सिस्टम के इन कार्यक्रमों की कल्पना कर सकता है? पर सांस्कृतिक परम्परा का मूल स्वरूप नष्ट नहीं होता. गरबा का भी मूल यही है कि लोग एक साथ गर्भदीप का चक्कर काटते हुए नाच-गाकर सामाजिक समरसता का संदेश देते हैं. भिलाई इसका बेहतरीन नमूना है जहां अलग-अलग पंथ और आस्था के लोग भी गरबा खेलते हैं. इसमें विघ्न पैदा करने वाले, उन राक्षसों की श्रेणी में आते हैं जिनका वध करने के लिए गुरू वशिष्ठ, राम और लक्ष्मण को राजा दशरथ से मांग कर ले गए थे. जय माता दी!