-दीपक रंजन दास
आदिवासियों का अधिकार और पेसा कानून, सबके प्रावधान धरे के धरे रह गए. उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव क्षेत्र में जंगलों को काटे जाने का विरोध करने वालों को सुबह-सुबह पुलिस ने घर से उठा लिया. कड़ी सुरक्षा के बीच इस क्षेत्र में कोल ब्लॉक के लिए प्रशासन और वन विभाग ने मंगलवार तक 45 हेक्टेयर क्षेत्र में 8 हजार पेड़ों को काट डाला. इन पेड़ों को बचाने के लिए आदिवासी समुदाय एक लंबे समय से आंदोलन कर रहा है. वह वनों में रतजगा करता रहा है. महिलाएं पेड़ों को सीने से लगाकर खड़ी रही हैं. अडानी समूह द्वारा संचालित कोल ब्लॉक के लिए पेड़ों की कटाई को लेकर भाजपा और कांग्रेस के नेता भी काफी समय से आमने-सामने हैं. बुधवार को भाजपा ने परसा क्षेत्र में पहुंचकर प्रदर्शन किया और पेड़ों की कटाई के लिए कांग्रेस को दोषी बताया. वहीं कांग्रेस ने कहा है कि खदान को मंजूरी डॉ. रमन सरकार के कार्यकाल में दी गई है. पेड़ों को बचाने एक साल से धरना दे रहे ग्रामीण अब सदमे में हैं. दरअसल यह तो होना ही था. प्रकृति ने खनिज और कोयले को जहां-जहां छिपा रखा है, उसके ऊपर घने जंगल हैं. इन्हीं जंगलों में वन्य प्राणी भी रहते हैं और आदिवासी भी. इन दोनों का ही जीवन जंगलों पर निर्भर है. पर विकास के लिए खनिज भी चाहिए और ऊर्जा भी. इसके लिए जंगल कटते रहे हैं, जंगल कट रहे हैं और आगे भी कटते रहेंगे. यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक काटने के लिए कोई जंगल शेष न रह जाए. आप चीता लेकर आओ या भालू, यदि पर्यावरण की रक्षा नहीं कर पाए तो खुद मनुष्य की उलटी गिनती शुरू होने वाली है. हसदेव के जंगलों में जो हो रहा है, वह अक्षम्य अपराध है. मध्यभारत का फेफड़ा कहे जाने वाले इन जंगलों को नष्ट करने की नौबत इसलिए आई क्योंकि सरकारों ने वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश नहीं किया. सौर ऊर्जा से लेकर नाभिकीय ऊर्जा तक का विकल्प वर्षों से हमारे पास उपलब्ध है. पर हम आज भी कोयला और पानी से बिजली बनाने पर अड़े हुए हैं. सौर ऊर्जा के विकल्प पर भी कभी गंभीरता से काम नहीं किया गया. हालांकि अब गांव-गांव में सौर ऊर्जा के पैनल दिखाई देने लगे हैं पर इसमें और तेजी लाने की जरूरत है. काश हमने यह पहल कुछ और पहले कर ली होती जो आज जंगलों को काटने के लिए शासन-प्रशासन को गुंडागर्दी नहीं करनी पड़ती. कैसी विडम्बना है कि एक तरफ प्रशासन जंगलों की कटाई को सुनिश्चित करने के लिए पूरी ताकत झोंक देती है और दूसरी तरफ आदिवासियों को ‘करीलÓ खाने से रोकती है. दरअसल, यह संसार का नियम है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाकर ही बड़ी होती है. बस्तियां हटती हैं तो शहर बसते हैं, जंगल कटते हैं तो महानगर रौशन होते हैं. यही सॉफिस्टिकेटेड जंगलराज है.