गांवों और शहर के कुछ हिस्सों में सिमटा पोला त्योहार उस समय चर्चा में आ गया जब साल 2019 में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा इसे व्यापक रूप से मनाने का निर्णय लिया गया। त्यौहारों में स्थानीय संस्कृति एवं लोक जीवन की झलकियां सहेजे छत्तीसगढ़, संस्कृति और त्यौहारों से सुसज्जित प्रदेश है। हमारे छत्तीसगढ़ में श्रम को पूजा जाता है और श्रम से परिपूर्ण कृषि कार्य यहां की पहचान है। यहां की कृषि संस्कृति में धान मुख्य फसल है और इसी कारण छत्तीसगढ़ को ‘धान का कटोरा भी कहा जाता है। यहां के पर्व कृषि से संबंधित होते हैं जैसे, अक्ति जो कृषि के नए वर्ष के रूप में मनाया जाता है, वहीं हरेली त्यौहार कृषि यंत्रों की पूजा का पर्व है। इसी प्रकार कृषि के मितान (मित्र) बैलों के कृषि में योगदान का आभार जताने हेतु पोला पर्व मनाया जाता है। पोला पर्व भादो महीने की अमावस्या को मनाया जाता है और स्थानीय भाषा में इसे पोरा तिहार कहते हैं।
बैलों के पूजा का पर्व पोला
किसान अपने बैलों के कृषि कार्यों में योगदान का आभार जताने के लिए पोला का पर्व मनाते हैं। पोला पर्व कृषकों व उनके पशुओं के प्रति परस्पर प्रेम का प्रतीक है। इस दिन किसान अपने बैलों को नहलाते, उनके सींगो को रंग एवं मोरपंख से सजाते हैं। गले में घुंघरू, घंटी या कौड़ी से बने आभूषण पहनाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में सोहाइ कहा जाता है। इसके बाद बैलों की पूजा- आरती कर उन्हें भोग के लिए तैयार किए पकवान खिलाए जाते हैं।

बनाए जाते हैं पारंपरिक पकवान
पोरा तिहार में सुबह से ही घर पकवानों की महक से भर जाता है, गृहणियां घर में गुरहा चीला, अइरसा, सोहारी, चौसेला, ठेठरी, खूरमी, बरा, मुरकू, भजिया, तसमई आदि पकवान बनाने में लग जाती हैं।

पोला पर्व के हफ्ते भर पहले से रंग- बिरंगे मिट्टी के बैल, पोरा, चूकिया से बाज़ार से जाते हैं। मिट्टी से बने नंदी बैल कि पूजा कि जाती है। साथ में मिट्टी के पोरा, चुकिया, जाता कि भी पूजा की जाती है। पूजा के पश्चात बच्चे इन बैलों और खिलौनों से खेलते हैं।
की जाती है नंदिया बैला कि पूजा
पोला त्यौहार में नंदी बैल जिसे छत्तीसगढ़ी में नंदिया बइला कहते हैं, की पूजा की जाती है। नंदी, भगवान शंकर के वाहन हैं और छत्तीसगढ़ का लोक जीवन भगवान शिव से परिपूर्ण है। यहां इनकी पूजा बूढ़ादेव, दूल्हादेव, सहाड़ा देव के रूप में की जाती है। भगवान शिव को भोले बाबा कहते हैं, वैसे ही छत्तीसगढ़ के उनके अनुयायी भी सीधे-सादे हैं। यही सीधापन और निश्छल भाव यहां के लोगों को सबले बढिय़ा बना देता है।
महिलाएं निभाती हैं पोरा पटकने का रिवाज़
पोला के तीन दिन बाद तीज पर्व होता है, इसलिए पोला के दिन महिलाएं अपने मायके आ जाती हैं और शाम को पोरा पटकने की परंपरा निभाती हैं। मिट्टी के बर्तन जिसे पोरा कहते हैं उसमें पारंपरिक व्यंजन जैसे ठेठरी, खुरमी, सलोनी आदी व्यंजन को रखकर महिलाएं तालाब या खुले मैदानों में एकत्रित होती हैं। फिर पोरा को पटक कर फोड़ती हैं और व्यंजनों का आनंद लेती हैं। पोरा पटकने के रिवाज़ के कारण इस त्योहार को पोरा पाटन भी कहते हैं। इस रिवाज़ के ज़रिए ससुराल से आई बेटियों को अपनी सहेलियों के साथ मिलने का भी अवसर मिल जाता है।
पोरा का पर्व हमारी संस्कृति और लोक जीवन को संजोने में अहम भूमिका निभाता हैं। इस बात को समझकर हमारी राज्य सरकार, बड़े स्तर पर इस पर्व का आयोजन करती है। यह आयोजन हमारी संस्कृति को विश्व भर में पहचान दिलाने में अहम भूमिका निभाती है।
इन त्यौहारों के माध्यम से ही हम अपनी संस्कृति को सहेज कर अगली पीढियों तक पहुंचा सकते हैं।