-दीपक रंजन दास
बच्चों में संस्कार डालने का दायित्व आखिर किसका है? माता-पिता, शिक्षक, समाज या सरकार में से किसके सिर पर इसका ठीकरा फोड़ा जाना चाहिए? समाज कहेगा यह जिम्मेदारी माता-पिता की है. डरे हुए माता-पिता खुद पीडि़त की श्रेणी में हैं. बढ़ते अपराधों के लिए सरकार को दोषी ठहराना विपक्ष का नैतिक दायित्व है. शिक्षक की हालत स्वयं बलात्कार पीडि़त जैसी है. वह तो किसी तरह पाठ्यक्रम पूरा करवा कर अपनी नौकरी बचा रहा है. ऐसे में संस्कारों की बात करना ही एक तरह की विलासिता है. पैसा यदि बिना उद्देश्य के कमाया जाए तो वह ऐसे ही खर्च होता है. जितना ज्यादा पैसा, उतनी शानोशौकत, उतनी बड़ी पार्टी. जितनी बड़ी पार्टी, उतना ही महंगा नशा, उतनी ही बेजा हरकतें. मतलब साफ है कि जैसे-जैसे लोगों के पास पैसा बढ़ता जाएगा, बुराइयां बढ़ती चली जाएंगी. पैसा होगा तो दोस्त होंगे. पैसा होगा तो सेटिंग भी होगी. नेताओं से पहचान बढ़ेगी और पुलिस प्रशासन का खौफ भी जाता रहेगा. जैसे-जैसे रुतबा बढ़ेगा, ‘नहींÓ सुनने और बर्दाश्त करने की शक्ति भी क्षीण होती चली जाएगी. तेज रफ्तार गाडिय़ां सड़कों पर आतंक मचाएगी. शोर शराबे वाली पार्टियों में कई चीखें दफ्न हो जाएंगी. ज्ञान देने वालों का खून बहाया जाएगा. यहीं से शुरू हो जाती है अपराधों की दुनिया. यह दरकन पूरे समाज की है जिसका ठीकरा किसी एक पर नहीं फोड़ा जा सकता. पर समाज में ‘बलि का बकराÓ ढूंढने की प्रथा है. हम हर बुराई, हर गलती के लिए किसी एक को जिम्मेदार ठहरा लेते हैं और फिर सब मिलकर उसपर चढ़ दौड़ते हैं. बलि का यह नया बकरा शराब है. कुछ लोग शराब बंदी की मांग कर रहे हैं. इधर शराब अब सबसे फालतू नशा हो गया है. यह तो पार्टियों में बहने वाला गंगा जल मात्र है. इससे अब उतना नशा होता नहीं, जितने की तलब होती है. नया दौर ड्रग्स का है. अब ड्रग्स मु_ी में छिपाकर गली के नुक्कड़ पर नहीं सरकाई जाती, अब वह दवा दुकानों पर बिकती है. बस अंटी में जोर होना चाहिए. पर क्या सभी युवा ऐसा कर रहे हैं, क्या सभी पार्टियों में यही सब हो रहा है? तो जवाब है, नहीं! निराशा और अंधकार की यह दुनिया बहुत बड़ी नहीं है. बड़ी संख्या में युवा समाज सेवा की ओर मुड़ रहे हैं. कोई पर्यावरण की रक्षा में जुटा है तो कोई घायल निरीह जीव-जंतुओं की सेवा कर रहा है. कोई वृद्धाश्रमों में वक्त गुजार रहा है तो कोई अनाथाश्रमों और दिव्यांग स्कूलों की मदद कर रहा है. कोई बस्तियों में जाकर बच्चों को कम्प्यूटर आदि स्किल सिखा रहा है. ऐसे युवा अपनी जेब खर्च की रकम का उपयोग समाज हित में कर रहे हैं. अच्छी बात यह है कि इसमें पुलिस अधिकारी भी व्यक्तिगत सहयोग कर रहे हैं. बुराइयों की लकीर को छोटा करने का एक ही तरीका है कि अच्छाई की लकीर को बढ़ाते चले जाएं. हमें इसपर ध्यान देना चाहिए.
गुस्ताखी माफ: सरकार पर न फोड़ें संस्कारों का ठीकरा
