-दीपक रंजन दास
भूल किसी से भी हो सकती है। एक भूल किसी का पूरा जीवन नष्ट नहीं कर सकती। प्राय: सभी धर्मों में भूल का प्रायश्चित्त करने का विधान भी है। आजादी की लड़ाई और 15 अगस्त 1947 में मिली आजादी को लेकर भी कुछ लोगों में उस समय संशय था। उन दिनों राजनीतिक हालात तेजी से बदल रहे थे। कभी भी कुछ भी हो जाता था। कुछ लोगों की अंग्रेजों की सूझबूझ में बड़ी आस्था थी। वो उनसे राजनीति का ककहरा सीख रहे थे। उन्होंने अंग्रेजों से वादा भी किया था कि आइंदा वे आजादी का नाम कभी भी अपनी जुबान पर नहीं लाएंगे। उन्होंने इसका पालन भी किया। जब देश आजाद हुआ तो शायद उन्हें लगा था कि यह स्थिति कुछ ही दिनों की है। अंग्रेज अवश्य कुछ न कुछ करेंगे। पर देश की आजादी लंबी खिंचती चली गई। तब जाकर उन्होंने नई रणनीति पर काम करना शुरू किया। आजादी के साथ ही देश को एक त्रासदी भी झेलनी पड़ी थी- मुल्क का बंटवारा। बंटवारा अपने साथ लूटपाट, हत्या और बर्बरता का सैलाब लेकर आया था। इस त्रासदी के बावजूद भारत ने संयम से काम लिया और सभी को साथ में लेकर आगे बढऩे की रणनीति पर अडिग रहा। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और कल्याण के लिए भी उपाय किये। कालांतर में अन्य राजनीतिक मतों का उदय हुआ – वोट बैंक की जरूरत पड़ी और अल्पसंख्यकों का उपयोग वोटबैंक के रूप में किया जाने लगा। अल्पसंख्यक वोट बैंक की राजनीति ने बहुसंख्यक वोट बैंक की जमीन तैयार कर दी। पहले पहल तो इस रणनीति का कोई बहुत ज्यादा फायदा नहीं मिला पर जैसे ही सोशल मीडिया का पदार्पण हुआ, इसे पंख लग गए। बिरयानी-शेरवानी-गजल संस्कृति पर क्लब-पब-पॉप संस्कृति भारी पड़ गई। लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखे एक-एक शब्द को सच मान लिया। राष्ट्रीय मीडिया भी दो भागों में बंट गया। इसका प्रभाव पूरे देश में देखने को मिला। पर इधर कुछ दिनों से युवा वर्ग में राजनीति के प्रति अरुचि देखी जा रही है। युवा कार्यकर्ताओं में नशेड़ी ही ज्यादा दिखाई देने लगे हैं। शेष युवा अपने करियर को लेकर संजीदा हैं। न तो वे अखबार पढ़ते हैं और न ही राजनीतिक मसलों पर बहस करते हैं। उन्हें घंटा फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी बन रही है। उसका भविष्य कॉर्पोरेट में सुरक्षित है। पर राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान, सेना और तिरंगे को लेकर वह बेहद संवेदनशील है। एकाएक उमड़ा तिरंगा प्रेम इसीलिए है। वही तिरंगा जिसे कभी ज्यादा भाव नहीं दिया-जिसे फहराने तक से परहेज किया, उसे अब घर-घर पहुंचाने की जिम्मेदारी मिली है। यही प्रायश्चित्त है। वैसे इससे पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को लेकर भी प्रायश्चित्त किया जा चुका है। समझ में आ गया है कि इस देश को सभी ने अपना प्यार दिया है, अपने खून से सींचा है। यह देश 135 करोड़ लोगों की मातृभूमि है, इसे स्वीकारने में ही गति है।
गुस्ताखी माफ: तिरंगे पर प्रायश्चित्त की जद्दोजहद
