-दीपक रंजन दास
पिछले कुछ दशकों में जाने-अनजाने में हमने स्त्री और पुरुष के बीच एक गहरी खाई खोद दी है। प्राकृतिक रूप से ये एक दूसरे के पूरक हैं। पर हमने इन्हें प्रतिद्वंद्वी बना दिया है। एक होड़ सी लग गई है महिलाओं में, स्वयं को पुरुष या पुरुष से बेहतर साबित करने की। इस अखाड़े में पुरुष खलनायक है। तकरार इतनी बढ़ चुकी है कि अब स्त्री-स्त्री से और पुरुष-पुरुष से विवाह करने पर उतारू हो गए हैं। उन्हें यह ज्यादा सुरक्षित लगता है। भले ही अभी इसके मामले संख्या में कम हो, पर उनके समर्थकों की संख्या को इसमें जोड़ दिया जाए तो यह हिमशैल (आइसबर्ग) जैसा प्रतीत होता है। हिमशैल पानी में तैरते बर्फ के वो विशाल टुकड़े हैं जिनका केवल दसवां हिस्सा ऊपर से नजर आता है। इसका नब्बे फीसद हिस्सा पानी के भीतर होता है। ताजा मामला छत्तीसगढ़ के कोरबा का है। दो सखियां एक दूसरे में इस कदर खो गईं कि साथ रहने के लिए घर से भाग गईं। पर जब कहीं टिकने की जगह नहीं मिली तो लौट कर घर आ गई। इसके बाद घरवालों ने दोनों की शादी अलग-अलग लड़कों से करवा दी। पर ये शादियां टिकी नहीं। थोड़े ही दिन में दोनों एक बार फिर घर से भाग गई हैं। इससे पहले नागपुर में हुई एक सगाई सुर्खियों में रही। एक महिला डाक्टर ने अपनी अकाउंटेंट सखी से सगाई की और फिर गोवा में दोनों ने शादी भी कर ली। जुलाई 2019 में कानपुर की दो बहनों ने बनारस के हनुमान मंदिर में जाकर शादी कर ली। इसी साल जून में गुजरात के वदोदरा की क्षमा बिंदु ने स्वयं से विवाह रचा लिया। देहरादून में पिछले तीन साल से एलजीबीटीक्यूएआई समुदाय गर्वोत्सव मना रहा है। इस साल 24 जुलाई को आयोजित गर्वोत्सव में लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीयर, इंटरसेक्स और एसेक्सुअल जोड़े जुटे। आम लोग भी बड़ी संख्या में इस परेड में शामिल हुए। दुनिया भर में ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। आस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, मेक्सिको, न्यूजीलैंड, यूएस और यूके सहित दुनिया के 32 देशों में समलिंगी विवाह को कानूनी मान्यता है। तो क्या प्रकृति स्वयं अपनी छाती पर बढ़ रहे इंसानों के बोझ को कम करने के रास्ते निकाल रही है? कुछ लोगों का मानना है कि स्त्रियों के अधिकारों की बातें करते करते कथित सभ्य समाज एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है जहां शादी को टिकाए रखने की पूरी जिम्मेदारी अकेले पुरुष की हो गई है। तमाम विसंगतियों के बीच कुछ शादियों केवल इसलिये टिकी हुई हैं कि पत्नी पति पर निर्भर है। जहां ये निर्भरता खत्म हुई, गाड़ी के दोनों बैल अलग-अलग दिशा पकड़ लेते हैं। इससे अलग रिश्तों के प्रति उदासीन दंपति आध्यात्म के नए फार्मेट से जुड़ रहे हैं। ऐसे लोगों की संख्या समाज में तेजी से बढ़ रही है। इन्हें सामाजिक मान्यता भी मिल गई है। ये सभी अपनी-अपनी तरह से वैवाहिक संस्था को चुनौती दे रहे हैं।
