-दीपक रंजन दास
आज भले ही चौड़ी-चमचमाती सड़कें पहाड़ों और जंगलों का सीना चीरकर दौड़ती दिखाई दें पर इनका आदिवासियों के विकास से कोई लेना देना नहीं है। हमने मान लिया है कि वो पिछड़े हैं। पढ़े-लिखे नहीं हैं। पैंट-शर्ट-जूता नहीं पहनते हैं। उनके पास ब्रांडेड कपड़े नहीं हैं। अस्पतालों में इलाज कराने की बजाय वो बैगा के पास जाना पसंद करते हैं। वह विदेशी फ्रूट्स नहीं खाता। उसके पास पीने के लिए महंगा शेक और आरओ का साफ पानी भी नहीं है। कभी नक्सली तो कभी पुलिस वाले उसे पीटते हैं। जंगली जानवरों का भय भी बना रहता है। फिर भी वह जीता है। न केवल जीता है बल्कि उसकी जिंदादिली और जीवटता भी देखने योग्य है। यही उनका जीवन और यही उनकी ताकत है। अगर आपके पास एक शव हो और कोई वाहन उपलब्ध न हो तो आप क्या करेंगे? क्या इतना साहस है कि उसे कंधे पर लेकर 20-25 किलोमीटर दूर घर तक लेकर चले जाएं? नहीं ना? तो फिर आदिवासियों को कमजोर कहना बंद करें। वो आपके हिसाब से कुपोषित हो सकते हैं। सिकल सेल के मरीज भी हो सकते हैं और रक्ताल्पता के शिकार भी। पर हौसला इतना है कि जब चाहें अपना कोर स्ट्रेंथ जगा लेते हैं। तभी तो दंतेवाड़ा का यह परिवार अपने बुजुर्ग के शव को खटिया में डालकर 25 किलोमीटर की पदयात्रा पर निकल पड़ता है। चार जने के इस परिवार में एक सदस्य महिला भी है। पर 25 किलोमीटर पैदल चलने के लिए वह भी तैयार है। यह कोई पहला मामला नहीं है जब किसी ने अपने परिजन के शव को कांधे पर ढोया हो। कभी एक पिता अपनी किशोरी बेटी की लाश को कंधे पर लादकर गांव की तरफ चल पड़ता है तो कभी एक पति अपनी पत्नी के शव को कंधे पर रख कर पैदल रवाना हो जाता है। गूगल-बाबा से पूछें तो वह आपको ऐसी सैकड़ों तस्वीरें दिखा देगा जिसमें शव को इस तरह से ढोते लोग दिखाई दे जाएंगे। जब जीवित लोगों के लिए ही सुविधाएं नाकाफी हों तो मुर्दों की चिंता कौन करे? विशाल सघन आबादी वाले इस देश में आज भी ढेर सारे मरीज केवल इसलिए अस्पताल पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं क्योंकि उन्हें अस्पताल पहुंचाने के पर्याप्त उपाय नहीं किये जा सके हैं। छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो यहां 102 और 108 के लगभग 700 एम्बुलेंस हैं। इनमें से कुछ में ही लाइफ सपोर्ट सिस्टम है। इसके अलावा 2300 निजी एम्बुलेंस हैं जिन्हें एम्बुलेंस कोटे में खरीदा तो गया है पर उनमें सुविधाएं नहीं हैं। जब सुविधा के अभाव में लोग मर रहे हों तब मर चुकों की चिंता कौन करे? उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना बेहतर।