-दीपक रंजन दास
45 मिनट पढ़ाने वाला हर शिक्षक गुरू नहीं हो सकता। जितना वक्त वह पढ़ाता है उससे कहीं ज्यादा वक्त वह इसका रिकार्ड रखने पर खर्च करता है। कब, कितना, क्या-क्या और कैसे पढ़ाया इसकी जानकारी रजिस्टर में भरते-भरते ही उसके कंधे झुक जाते हैं। ऐसा लाचार-थकेला-इंसान अगर दैवयोग से किसी छात्र का प्रेरणा स्रोत या आदर्श बन जाता है तो इसके लिए उसे शाबासी देनी चाहिए। गुरू अपने शिष्यों को एक जीवन पद्धति में ढालता था। आश्रम श्रीकृष्ण और सुदमा पैदा करते थे। इसका एक आभासी रूप सेना में दिखाई देता है जहां प्रशिक्षु 24&7 सेना की छावनी में ही रहता है। चार-छह महीने में उसका चाल-चलन-चेहरा सबकुछ बदल जाता है। कुछ शीर्ष कालेजों की छाप वहां के विद्यार्थियों में देखी जा सकती है। जाहिर है व्यक्तित्व को गढऩे में परिवेष का बड़ा योगदान होता है। इस सबसे परे विशाल आबादी वाले देश में शिक्षा का एक विस्तृत बाजार है। यहां प्रतिस्पर्धा इतनी है कि हर दिन एक नया कोर्स, एक नया कालेज, एक नया गुरू सामने आ रहा है। कॉमर्स गुरू, इंग्लिश गुरू, केमिस्ट्री गुरू, फिजिक्स गुरुओं के बोर्ड हर शहर में दिख जाएंगे। इनमें से अधिकांश स्वयंभू हैं। इन्हें किसी ने गुरू माना नहीं है, इन्होंने खुद को गुरू घोषित किया हुआ है। गुरुओं का एक और वर्ग है जिसके किरदार अलग-अलग कारणों से शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचते रहे हैं। इनमें से कुछ तो जेलों में बंद हैं और कुछ ऐसे हैं जिनसे मिलने उनके अनुयायी मुंह छिपाकर जाते हैं। कुछ समुदाय-सम्प्रदायों में गुरू बनाने की परम्परा है। ये गुरू भी मंत्र दीक्षा देकर अपने रास्ते हो जाते हैं। किसी की जीवनपद्धति पर इनका कोई साफ-साफ असर दिखाई नहीं देता। दरअसल इंसानी फितरत है कि कुछ नया मिल जाने पर वह पुराने को छोड़ देता है। कुआं खोदना सीख लिया तो तालाबों को अपने हाल पर छोड़ दिया। फिर बोरवेल आया तो कुएं सडऩे लगे। जब किताबें नहीं थीं तो गुरू, ज्ञान का एकमात्र स्रोत था। किताबें आईं तो गुरू का कद थोड़ा छोटा हो गया। गाइड आने के बाद किताबों को भी एक कदम पीछे जाना पड़ा। इंटरनेट के आने के बाद यूट्यूब और तमाम चैनलों पर मुफ्त का ज्ञान मिलने लगा। डिजिटल कंटेंट तेजी से अपडेट होने लगे और किताबें-गाइड सब कोसों पीछे छूट गए। पिछले दो वर्षों में कोरोना काल ने उन तमाम हाथों तक स्मार्ट फोन पहुंचा दिया जिन्हें अब तक बलपूर्वक इससे दूर रखा गया था। जिन कालेजों में मोबाइल रखने पर जुर्माना लगाया जाता था, वहां भी मुफ्त के स्मार्ट फोन बंटने लगे। ज्ञान के इस महासागर के आने के बाद गुरुओं का भी एक कदम पीछे जाना बनता ही है। अब बताओ गुरू कौन?
गुस्ताखी माफ: गुरू पर मत लादो अपेक्षाओं का बोझ
