-दीपक रंजन दास
गणित और विज्ञान पढऩे वाले मेधावी भी अब हिस्ट्री-फीवर की चपेट में हैं। रह-रहकर वे इतिहास की बातें करने लगते हैं। उनका इतिहास ज्ञान भी एकदम चोखा प्रतीत होता है। इस तरह की बहस कभी कम्युनिस्ट विद्यार्थी किया करते थे। उनके पास तमाम उदाहरण होते थे। इतिहास के पन्नों में गुम हो चुकी घटनाओं का वर्णन वे इस बारीकी से करते थे मानो चश्मदीद गवाह रहे हों। इतिहास के विद्यार्थी जहां एक कालखंड की सभी घटनाओं को पढ़ते हैं वहीं नई पौध को घटनाएं चुन-चुन कर पढ़ाई जाती हैं। इतिहास का विद्यार्थी जहां घटनाओं को तटस्थ भाव से पढ़ता-समझता है वहीं एक खास विचारधारा के लोग इतिहास की चुनी हुई घटनाओं को आगे रखकर आक्रोश पैदा करते हैं। उदयपुर की घटना को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की है। इसे योजनाबद्ध तरीके से आक्रोश को हवा देने वालों को सबक के रूप में देखा जाना चाहिए। आक्रोश के चलते कैसी-कैसी घटनाएं हो सकती हैं, इसे समझने के लिए दृष्टिकोण को थोड़ा चौड़ा करना होगा। कांकेर में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को कुल्हाड़ी से काट डाला। वाराणसी में एक महिला डॉक्टर का सिर उसके देवर ने हथौड़ी मारकर खोल दिया। थोड़े दिन पहले एक व्यक्ति ने अपने सगे भाई-भाभी की पीट-पीट कर हत्या कर दी। इस तरह की सैकड़ों घटनाएं रोज घटती हैं। इनमें से अधिकांश घरों में होती है। एक ही बाप की औलादें आपस में खून बहाती हैं। पर वहां ऐसा कोई एंगल नहीं होता जिसका राजनीतिक उपयोग किया जा सके। वोटों की राजनीति के लिए ध्रुवीकरण जरूरी है। इसलिए चुन-चुन कर ऐसी घटनाओं को हवा दी जाती है जिससे समाज का ध्रुवीकरण हो। बचपन में जब पहली बार तांगा देखा था तो पिता से एक सवाल किया था। घोड़ों की आंखों पर पट्टी क्यों बंधी होती है? बड़ा सरल सा जवाब मिला था – घोड़े की आंखें उभरी होती हैं जिनमें 180 अंश तक की दृष्टि होती है। पट्टी न लगी हो तो घोड़े का ध्यान बंट सकता है। फिर वह अपनी पूरी शक्ति को एक ही दिशा में नहीं लगा पाता और तांगा चलाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए आंखों पर ऐसी पट्टी बांधी जाती है कि वह केवल सामने देख सके। राजनीति की गाड़ी का भी वही हाल है। आंखों पर घुड़-पट्टी बांध दी गई है। केवल उतना ही दिखता है जितना दिखाया जाता है। पूरा इतिहास पढऩे, मानव स्वभाव या आक्रोश के मनोविज्ञान को समझने की फुर्सत किसे है? आक्रोशित व्यक्ति वाही-तबाही बकता है। सही-गलत की बहस घर के ड्राइंग रूम में होती है, सगे भाइयों में सिर फुटोव्वल हो जाती है। समाज दरक रहा है, सर्वोच्च न्यायालय का परेशान होना तो बनता ही है।
गुस्ताखी माफ: घोड़े की आंखों पर पट्टी क्यों?
