-दीपक रंजन दास
तीली और माचिस एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। वैसे तो ये सदा साथ-साथ बिना किसी खतरे के रहते हैं पर यदि तीली को बाहर निकालकर डिबिया पर रगड़ दिया जाए तो आग लग जाती है। ऐसी ही एक तीली को डिबिया पर रगड़कर फूस की ढेर पर फेंक दिया गया और वहां से आग कुछ ऐसी फैली की पूरी बस्ती स्वाहा हो गई। आज हिन्दू हों या मुसलमान, सभी भीतर से फुंके हुए हैं। जब-जब उबाल आता है, मुंह से अनाप-शनाप निकल ही जाता है। पर यह बातें दोस्तों के बीच, बंद कमरों में हों तो बात आई गई हो जाती है। इक्का-दुक्का मामलों में बात झूमा-झटकी से लेकर मार-काट तक भी पहुंच जाती है पर इसका नुकसान सीमित होता है। पर जब वही बात सार्वजनिक मंच से कोई जिम्मेदार व्यक्ति बोले तो देश भर में लपटें उठने लगती हैं। ऐसे बोल-बचनों का किसी न किसी राजनीतिक दल से गहरा रिश्ता होता है। यह रिश्ता ऐसा होता है कि बोल-बचन का नफा या नुकसान सीधे पार्टी को ही जाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बोलने वाला अब निष्कासित या निलंबित है। ऐसे लोग देश का माहौल बनाते और बिगाड़ते हैं। उनके बयानों को पार्टी की आइडियोलॉजी और बयान ही समझा जाता है। ऐसे बयानों का मकसद साफ है – ध्रुवीकरण। फिर चाहे उसके लिए देशभर में खून-खराबा ही क्यों न हो जाए। नुपुर शर्मा और असदुद्दीन ओवैसी ऐसे ही दो धड़ों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या आगे बढऩे के लिए देश को 1947 के दौर में लौटा ले जाना जरूरी है? उस समय भी किसे क्या ही मिल गया था? दो महत्वाकांक्षी नेताओं की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पूरी हो गई थी। इसके लिए लाखों लोगों की जानें गई थीं और हजारों परिवार आज भी उसकी पीड़ा को जी रहे हैं। उस समय यह लड़ाई देश की सीमाओं के आसपास थी। अब ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी तो वह देश के भीतर होगी, अपनी जमीन पर होगी। जो कुछ जलेगा, जितना खून बहेगा, जो कुछ नष्ट होगा – वह सब अपना होगा। माता भारती ही लहूलुहान होंगी।
बात का बतंगड़: नेता निलंबित भी है तो क्या फर्ख पड़ता है
