-दीपक रंजन दास
प्रत्येक शहर और भवन का एक अपना इतिहास होता है। उत्पत्ति, वैभव और पराभव होता है। इतिहास में जितने भी नगरों और भवनों का उत्थान हुआ है, उनका पतन भी हुआ है। इंद्रप्रस्थ के साथ महाभारत जुड़ा है जिसमें भाई-भाई के झगड़े में पूरे वंश का नाश मय स्वजन व परिजनों के हो गया था। मथुरा और वृंदावन को श्रीकृष्ण ने एक बार छोड़ा तो फिर कभी लौट कर नहीं आए। यहां तक कि द्वारका का अस्तित्व भी मिट गया। प्रभु श्रीराम के बाद अयोध्या की कीर्ति भी नष्ट हो गई। जिस सरयु में श्रीराम ने समाधि ली, उसका भी महत्व जाता रहा। लव और कुश अपनी राजधानी बहुत दूर ले गए। अधिकांश किले और दुर्ग ध्वस्त हो गए, केवल खंडहर शेष हैं। सत्ता का केन्द्र रहा लालकिला भी अब केवल पर्यटन स्थल है। यही सत्य है, जो बीत गया सो बीत गया। देश में एक वर्ग वक्त के पहिए को उल्टा घुमाने की कोशिश कर रहा है। फिलहाल शहरों का भारतीय नामकरण किया जा रहा है। कोशिश है कि शहरों को उनके पुराने नाम से जाना जाए। हालांकि इसकी शुरुआत दिल्ली अर्थात इंद्रप्रस्थ से होनी चाहिए थी, पर हिम्मत नहीं पड़ी। डर था, कहीं फिर से भाई-भाई में फूट पड़ गई तो? सनातन संस्कृति में नामकरण का बड़ा महत्व रहा है। कोशिश हमेशा यही रही है कि नामकरण ऐसे नामों पर किया जाए जो अविजित रहे हों, जिनका कीर्तिचक्र फहरा रहा हो, जो स्वभाव से अजर-अमर-अविनाशी हो। विजय, नरेश, सुरेश, दिग्विजय आदि नामों का चलन इसी आधार पर हुआ। जिन्हें ज्यादा कुछ नहीं सूझा, उन्होंने देवताओं के नाम पर अपने बच्चों का नामकरण किया। शिवा, विष्णु, राम, लक्ष्मण, इंद्र, कृष्ण, कन्हैया आदि नाम इस श्रेणी में आते हैं। वहीं अनिष्ट को टालने के लिए बच्चों के विकृत नाम चुने गए, ताकि नजर लगने की संभावना खत्म हो जाए। इनमें कचरा, मेहतरीन, कलुआ, चमरू, जैसे नाम रखे गए। इतिहास में बदनाम विभीषण, मंथरा, शकुनी, कंस जैसे नामों से दूरी ही रखी गई है।
बात का बतंगड़: सनातन और नामकरण का गणित




