-दीपक रंजन दास
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश को क्या चाहिए-सहकारिता, कार्पोरेट या स्व-सहायता समूह। आरंभिक दौर में भिलाई इस्पात संयंत्र के कर्मचारियों का वेतन बहुत ज्यादा नहीं था। एकल परिवार था, तीन-तीन चार-चार बच्चे थे, बीएसपी स्कूलों में सस्ती शिक्षा थी, बीएसपी के अस्पतालों में मुफ्त इलाज था। बावजूद इसके कर्मचारी सहकारी समितियां बनाते थे। ऐसा कर वे राशन खर्च का कुछ पैसा बचा लेते थे। सालाना हिसाब कर यह रकम आपस में बांट लेते, सदस्यों को उपहार देते या फिर पिकनिक करते। उधर ग्राम तिरगा झोला में दाऊ प्यारेलाल बेलचंदन कृषि सहकारिता पर काम कर रहे थे। सहकारी बैंक, सहकारी राशन दुकानें स्थापित हो रही थीं। सहकारिता के दम पर ही स्मृति नगर जैसी आवासीय कालोनियां बनी। जैसे-जैसे वेतन भत्ता बढ़ा, सहकारिता फिकरा मात्र बन कर रह गई। कार्पोरेट का दौर आया तो दर्जी, मोची, आटा चक्की, मसाला कूटने पीसने वाले, सबका धंधा मंदा पड़ गया। गरीबों की आजीविका छिन गई और किसी ने उफ्फ तक नहीं की। एक बार फिर सहकारिता ने अपना दम दिखाना शुरू किया। अंतर केवल इतना था कि इस बार धुर गरीबों ने सहकारिता आंदोलन शुरू किया। जिनके पास खाने-पहनने के लिए नहीं था, वे केवल श्रम के बल पर सहकारिता के क्षेत्र में आए। स्व-सहायता समूह बनाकर उन्होंने एक दूसरे की मदद से बड़ा व्यापार खड़ा कर लिया। महिलाओं ने इस में बाजी मार ली। दस-पंद्रह महिलाओं के स्व-सहायता समूह खेती किसानी, ठेकेदारी, खदान संचालन, अपराह्न भोजन से लेकर पोल्ट्री फार्मिंग, मशरूम फार्मिंग, मवेशी पालन, मछली पालन, गोबर खाद बनाने से लेकर दाल मिल तक चलाने लगे। राजनांदगांव में पद्मश्री फुलबासन बाई यादव के नेतृत्व में ढाई लाख महिलाएं संगठित हो गईं। गुण्डरदेही में पद्मश्री शमशाद बेगम ने शराब और जुए पर प्रभावी नियंत्रण लगा दिया। हाल ही में जापान की एक टीम ने धमधा के संडी में श्रद्धा स्व सहायता समूह का काम देखा और तारीफ की। आईसीआईसीआई फाउंडेशन के सहयोग से यहां दाल बनाने और पालिश करने की मशीन लगी है। अच्छी खासी मांग भी निकल आई है। महिलाएं न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक शक्ति बनकर उभर रही हैं। वे निजाम भी बदल सकती हैं।