-दीपक रंजन दास
सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर कहा है कि शरिया या किसी भी धार्मिक न्यायालय द्वारा सुनाया गया फैसला तभी मान्य हो सकता है जबकि दोनों पक्ष उससे सहमत हों और उसपर अमल करें। यदि कोई इस फैसले को नहीं मानना चाहता तो वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है। अर्थात शरिया अदालत का फैसला मानना है तो मानो और नहीं मानना चाहते तो मत मानो। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसी अदालतों का कोई कानूनी दर्जा नहीं है। शरिया कोर्ट या दारुल कजा जैसे संस्थानों के फतवे या फैसलों की कोई कानूनी मान्यता नहीं है और वे बाध्यकारी नहीं हैं। अदालत एक महिला के गुजारा भत्ते की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस मामले में परिवार न्यायालय की टिप्पणी मजेदार है। परिवार न्यायालय ने इस मामले में कहा था कि चूंकि दोनों पक्षों के लिए यह दूसरी शादी थी, इसलिए पति द्वारा दहेज मांगे जाने की कोई संभावना नहीं है। वह तो केवल अपना घर फिर से बसाने की कोशिश कर रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने परिवार न्यायालय की इस टिप्पणी को खारिज करते हुए कहा कि ये अनुमानों पर आधारित है। कोर्ट यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकती कि दोनों की दूसरी शादी थी, इसलिए दहेज की मांग की बात गलत है। दरअसल, देश में दोहरी कानून व्यवस्था हमेशा मौजूद रही है। एक तो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की, जिसे लागू करवाने की जिम्मेदारी माननीय न्यायालयों और पुलिस की है। दूसरी व्यवस्था समाज की अपनी अदालतों की है। देश के एक बड़े भाग में ये सामाजिक पंचायतें बेहद प्रभावशाली हैं। इनमें खाप पंचायतें भी शामिल हैं। ये गैर कानूनी अदालतें अपना फैसला सुनाती हैं तो अधिकांश लोग उसे मान भी लेते हैं। इसमें आर्थिक दंड के साथ-साथ समाज से बहिष्कार, गांव में हुक्का पानी बंद कर देने, मारपीट करने से लेकर हत्या तक कर देने के फैसले सुनाए जाते हैं। इन फैसलों से भले ही देश का कानून इत्तेफाक न रखता हो पर इसे स्वीकार करना साधन विहीन लोगों की विवशता होती है। हर कोई न तो हाईकोर्ट की फीस भर सकता है और न सुप्रीम कोर्ट तक जाने की हिम्मत जुटा पाता है। मजे की बात यह है कि पंचायतों के गैरकानूनी फैसलों पर तो अदालतों को आपत्ति है ही, आए दिन ऐसे मामले भी सामने आते रहते हैं जिसमें निचली अदालतों का फैसला हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाकर बदल जाता है। कभी हाईकोर्ट, जिला अदालत को फटकार लगाता है तो कभी सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट को। जब एक ही देश और एक ही कानून के तहत फैसले सुनाए जाते हैं तब फैसलों का इस तरह पलट जाना अचंभित करता है। वह भी तब जब मिलते-जुलते मामलों में पहले से कोई फैसला निदर्श के तौर पर उपलब्ध हो। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के एक मामले में भी ऐन यही टिप्पणी की थी कि शरिया अदालतों का फैसला किसी भी पक्ष के लिए बाध्यकारी नहीं है।
Gustakhi Maaf: शरिया अदालत का फैसला बाध्यकारी नहीं
