-दीपक रंजन दास
सनातन अनुभवों से सीख लेकर आगे बढ़ता रहा है। उसने प्रकृति, अंतरिक्ष और अदृश्य लोक को अपनी सकारात्मक कल्पना के द्वारा भांपा-सीखा और स्वयं को उसके लिए अनुकूल करता गया। जीवन पद्धति, खान पान, पहनावा ओढ़ावा इसी तरह विकसित हुआ। उसके पास वैज्ञानिक उपकरण भले न रहे हों, पर उसने अपने अनुभवों की संख्यिकी का उपयोग किया, उसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया और नतीजों पर पहुंचे। पर ऐसा प्रतीत होता है कि विज्ञान आधारित वह समाज कहीं खो गया है। हमारी सोच पोथी के जंगल में भटक गई है। हमारा ध्यान इसपर ज्यादा है कि लोग क्या कह रहे हैं, महत्वपूर्ण लोग क्या सोचते हैं। समाज के कथित कर्णधारों के उद्देश्य को समझे बिना ही हम यह मान लेते हैं वह तमाम बातें समाज हित में कर रहा है। पृथ्वी पर कहीं सिर्फ बर्फबारी थी तो कहीं सूखे रेगिस्तान और रेतीले तूफान। भारत भूमि ही वह इकलौती जगह थी जहां जीवन के अनुकूल सभी परिस्थितियां उपलब्ध थीं। हमारे पास उपजाऊ जमीन, पर्याप्त से ज्यादा पीने योग्य पानी, जंगल, मैदान, पठार सबकुछ था। जब शेष दुनिया जीवित रहने के उपाय कर रही थी, तब हमारा विज्ञान हमें अंतरिक्ष तक लेकर जा रहा था। प्रात: स्नान की शुरुआत भी संभवत: ऐसे हुई कि सुबह जब हम बिस्तर से निकलते हैं तो शरीर का तापमान अधिक होता है। तब तालाब और नदी का पानी सर्द हवाओं के मुकाबले गर्म होता है। गर्मियों में जब हम शीतलता ढूंढते हैं तो गर्म हवाओं की तुलना में पानी ठंडा लगता है। प्रात: स्नान न केवल हमारे भौतिक शरीर को ताजगी और स्फूर्ति से भर देता था बल्कि एक शुद्धता का भाव भी लेकर आता था। टंकी का पानी और बाथरूम के जमाने में यह विज्ञान काम नहीं करता। प्रत्येक तीज-त्यौहार और पर्व मौसम के अनुकूल था। पर अब उस तर्क को समझने वालों की कमी हो गई है। इसलिए जब कोई कहता है कि दीपावली में पटाखे नहीं चलाने चाहिए तो लोग कुतर्क में उलझ जाते हैं। एक ऐसा ही कुतर्क इन दिनों सोशल-मीडिया पर चल रहा है। लोग इजरायल-हमास और रूस-यूक्रेन युद्ध का हवाला देते हुए पूछने लगे कि वहां प्रदूषण नहीं हो रहा है क्या? बात सिर्फ प्रदूषण की नहीं है। एक तरफ तो आप लक्ष्मीजी की पूजा कर रहे हैं, धन-धान्य, सुख-समृद्धि की कामना कर रहे हैं और दूसरी तरफ अपने संसाधनों को धमाकों के साथ राख कर रहे हैं। वैसे भी युद्ध कोई शौक से नहीं करता। ये दो युद्ध दुनिया को यह जताने के लिए काफी हैं कि सैन्य सामथ्र्य बढ़ाने का कोई खास फायदा नहीं होता। जिन देशों के बारे में हमारा यह मानना था कि उन्हें चींटियों की तरह मसल दिया जाएगा, वैसा कुछ संभव नहीं हो पा रहा है। तब याद आता है महात्मा गांधी का फार्मूला। भारत को आजादी भी मिल गई और अंग्रेजों के प्रति वैसी नफरत भी नहीं पैदा हुई जो हो सकती थी।