-दीपक रंजन दास
कोरोना ने कुछ लोगों का जीवन छीन लिया तो वहीं कुछ लोग हमेशा के लिए कमजोर होकर रह गए हैं. वहीं विद्यार्थियों के साथ कोरोना ने एक नया खेल खेला है. इन बच्चों की लिखने की आदत छूट गई है. ये पढ़ लिख तो रहे हैं, मौखिक परीक्षाओं में जवाब भी दे रहे हैं पर लिखित परीक्षा में ये कोरे पन्ने छोड़कर आ रहे हैं. माध्यमिक शिक्षा मंडल इसे लेकर खासा परेशान है. अब जबकि परीक्षाएं सिर पर हैं तो बच्चों में लिखने की आदत दोबारा विकसित करने की कोशिशें हो रही हैं. फरवरी के दूसरे सप्ताह में 10वीं और 12वीं के परीक्षार्थियों के लिए एंड लाइन परीक्षा का आयोजन किया जाएगा. हालांकि, इस परीक्षा से भी कोई बहुत अच्छे नतीजों की उम्मीद नहीं है. बोर्ड मानकर चल रहा है कि इस कवायद के बाद भी केवल 70 फीसदी बच्चे ही उत्तरों को लिखने में समर्थ होंगे. इस वर्ष 10वीं में शासकीय एवं निजी स्कूलों के 57 हजार 717 बच्चों ने पंजीयन करवाया है. वहीं 12वीं कक्षा की परीक्षा में 44 हजार 44 बच्चे परीक्षा में बैठेंगे. परीक्षकों का कहना है कि इन बच्चों की लिखने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हुई है. ऑनलाइन एजुकेशन के दौर में बच्चे किसी तरह क्लास तो अटेंड कर रहे थे पर अधिकांश बच्चों ने नोट्स नहीं बनाया. परीक्षाएं ऑनलाइन हुईं तो उत्तर पुस्तिकाओं को भरने के लिए 7-8 घंटे मिल गए. रुक-रुक कर उन्होंने किसी तरह इसे भर लिया था. यही कारण है कि पिछले महीने के अंत तक हुई इन कक्षाओं की वार्षिक प्रायोगिक परीक्षाओं और असाइनमेंट में केवल 70 फीसदी बच्चे ही संतोषजनक उत्तर लिख पाए हैं. शेष बच्चों को कृपांक दिये जा रहे हैं ताकि वे प्रायोगिक परीक्षाओं में पास हो जाएं. दरअसल, लिखने की यह क्षमता केवल स्कूली बच्चों की नहीं बल्कि महाविद्यालयीन विद्यार्थियों की भी कम हुई है. हाल ही में जब विश्वविद्यालय के निर्देश पर महाविद्यालयों में मॉडल टेस्ट लिये गये तो बहुत कम बच्चे दो या तीन सवालों के जवाब लिख पाए. बड़ी संख्या में विद्यार्थियों ने दो-चार लाइन लिखकर ही कापी जमा करवा दी. वरिष्ठ शिक्षाविदों की मानें तो कोरोना काल के बाद जब स्कूल-कालेज खुले तब हमने कोई रणनीति नहीं बनाई. स्कूल कालेजों में पढ़ाई लिखाई पुराने ढर्रे पर ही लौट आई. विशेष परिस्थितियों का हमने ध्यान नहीं रखा. यदि क्लास टेस्ट और मंथली टेस्ट वाले मिडिल स्कूल के फार्मेट पर हमने काम किया होता तो बच्चों को वापस पुराने रूप में लाने में मदद मिल सकती थी. समय निकल जाने के बाद अब ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता. सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि या तो बच्चों को परीक्षाओं में अतिरिक्त समय दिया जाए या फिर उनसे ज्यादा लंबे उत्तरों की उम्मीद न की जाए. पर दिक्कत यह है कि वार्षिक के प्रश्नपत्र तैयार हो चुके हैं. अब सबकुछ बोर्ड की इच्छाशक्ति पर ही निर्भर है.