-दीपक रंजन दास
शंकराचार्य की पदवी को लेकर पुरी पीठ के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने एक मौलिक बात कही है. उन्होंने एक सीधा सच्चा सवाल पूछा है – ‘अविमुक्तेश्वरानंद को किसने धर्माचार्य होना या शंकराचार्य होने का प्रमाणपत्र दिया?’ सही है जब जन्म और मृत्यु तक का प्रमाणपत्र होता है तो धर्माचार्य का भी होना चाहिए. साथ ही धर्माचार्य शब्द को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि धर्माचार्य उसे कहते हैं जो धर्म को विधिवत जानता हो और उसका पालन करता हो. केवल वही धर्माचार्य हो सकता है जिसमें विश्व के सामने धर्म को प्रस्तुत करने की क्षमता हो, समाज को सन्मार्ग पर ले जाने का बल और सामथ्र्य हो. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दुत्व की व्याख्या 11 सितम्बर, 1893 को विश्व धर्मसंसद में नरेन्द्र नाथ दत्त, अर्थात स्वामी विवेकानन्द ने की थी. उन्होंने हिन्दुत्व का जो चित्रण था, उसका आधार ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा थी. दुनिया भर में हिन्दुत्व की इसी परिभाषा को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. इसमें किसी भी प्रकार की कोई संकीर्णता नहीं है. उन्होंने अमेरिकियों को ‘अमेरिका में रहने वाले मेरे भाईयों और बहनों’ के नाम से संबोधित करते हुए भारत और अमेरिका को जोड़ दिया था. उनके पास भी धर्माचार्य का प्रमाणपत्र नहीं था. कोई भी, उन्हें धर्माचार्य मानने से इंकार कर सकते हैं. उनकी व्याख्या को उनका व्यक्तिगत विचार बता सकते हैं. शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती ने उदाहरणों के द्वारा धर्म को स्वभाव से भी जोड़ा. उन्होंने कहा कि पानी प्यास बुझाना नहीं छोड़ता, अग्नि ताप देना नहीं छोड़ती. स्पष्ट है कि धर्म का तात्पर्य वह नहीं है जो हम सोचते या समझते हैं. जिसे हमने धर्म समझ लिया है, वह आस्था है. छठ सूर्य से जुड़ा है तो करवाचौथ चन्द्रमा से. मकर संक्रांति पर स्नान का महत्व है तो गोवर्धन पूजा में गौवंश और गोवर्धन पर्वत का. कोई पहाड़ों को पूजता है तो कोई जंगलों की पूजा करता है. देवता को प्रसन्न करने के लिए कोई तप करता है, कोई उपवास रखता है तो कोई पशुबलि देता है. लोग स्थान, काल और परिस्थिति के अनुसार अपनी आस्था चुनते हैं और उसका पालन करते हैं. इस आस्था की रक्षा का उसे अधिकार है. आस्था की रक्षा के लिए शस्त्र उठाना भी धर्म है. धर्म को स्वभाव से जोड़ लें तो मनुस्मृति के इस श्लोक का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है –
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
अर्थात मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश और रक्षित किया हुआ धर्म अपने रक्षक की रक्षा करता है. जो पुरूष धर्म का नाश करता है, धर्म उसी का नाश कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है. मरा हुआ धर्म कभी हमको मार न डाले, इस भय से धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए. स्पष्ट है कि हिन्दुत्व इन सभी आस्थाओं को एक साथ लेकर चलता है. वह आस्था में भेद नहीं करता. यही धर्मनिरपेक्षता है.